इंद्रधनुष सतरंगा
(1)
हिलमिल मुहल्ला
हिलमिल मुहल्ले को लोग अजायब घर कहते हैं। इसलिए कि यहाँ जितने घर हैं, उतनी तरह के लोग हैं। अलग पहनावे, अलग खान-पान, अलग संस्कार, अलग बोली-बानी और अलग धर्म-वर्ण के। सचमुच, यह मुहल्ला और मुहल्लों से बिल्कुल अलग है। यहाँ के लोगों में प्रेम और अपनत्व का रंग बहुत गाढ़ा है। वे एक-दूसरे की ख़ैर-ख़बर रखते हैं; ख़ुशियों में शामिल होते हैं; दुख-तकलीफ में साथ देते हैं; साथ उठते-बैठते हैं; हँसी-मज़ाक़ करते हैं; एक-दूसरे का हाथ बँटाते हैं।
और फिर----लोगों का क्या, लोग तो कहते ही रहते हैं। सही को ग़लत और ग़लत को सही। पर जो अपने मन की सुनता है और सच्चाई का साथ देता है, वह लोगों की बातों में नहीं आता। हिलमिल के लोग भी अपने दिल की सुनते हैं। इसीलिए वे ख़ुश रहते हैं।
मुहल्ले का नाम हिलमिल किसने रखा? कोई नहीं जानता। लोग आते रहे और मुहल्ला बसता गया। शहर के आखि़री छोर पर बसा हुआ है यह मुहल्ला। कहते हैं, पहले लोग यहाँ दिन में भी आते डरते थे। दूर-दूर तक सिर्फ खेत और जंगल थे। पर यह तो बरसों पहले की बात है। अब तो यहाँ ख़ूब चहल-पहल रहती है। टैक्सी वाले दिन भर चिल्ला-चिल्लाकर सवारियाँ बुलाते रहते हैं। पान की कई दुकानें हैं, चाय के ढाबे हैं और फलों के ठेले तो दिनभर खड़े रहते हैं। टैक्सी वाले इसे ‘हिलमिल स्टॉप’ कहते हैं। शहर के लोग भी इसे इसी नाम से पहचानते हैं।
एक बार यहाँ एक नेता जी आए थे--मुहल्ले में बनी सड़क का उद्घाटन करने। उन्होंने अपने नाम का पत्थर लगाया और इसे ‘गंगापुरी’ नाम दिया। पर मुहल्लेवालों ने इसे अपनाया नहीं; शहरवालों ने भी नहीं। गंगापुरी का पत्थर अब धूल-गर्द खा रहा है। एक तरफ टेढ़े हो गए उस पत्थर पर कौए बैठते हैं।
लेकिन मुहल्ले का परिचय तो तब तक अधूरा है जब तक यहाँ के लोगों से मुलाक़ात न कर ली जाए--
मुहल्ले में प्रवेश करते ही जो मकान सबसे पहले पड़ता है वह पंडित माताबदल उपाध्याय का है। वे एक संस्कृत महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं। मूल रूप से बनारस के रहने वाले पंडित जी छः फिट के लंबे-चौडे सुदर्शन व्यक्ति हैं। झक सफेद धोती-कुर्ता और माथे पर अक्षत-रोली का टीका उनकी पहचान है। पंडित जी संकोची प्रवृत्ति के हैं। लोगों में घुलते-मिलते कम हैं।
उनके मकान से सटा पत्रकार अनिल आतिश का मकान है। वे एक समाचार-पत्र में काम करते हैं। छोटे क़द के आतिश जी तेज़-तर्रार आदमी हैं। लोगों में उनकी बड़ी जान-पहचान है। उनका मकान अक्सर बंद रहता है। सुबह होते ही निकल जाना और देर रात लौटना उनकी आदत भी है और मजबूरी भी।
गली के दूसरे छोर पर तौले राम गुप्ता का मकान है। वह पी0डब्ल्यू0डी0 विभाग में नौकरी करते हैं। उनके दरवाजे़ पर टी0आर0 गुप्ता की नेम-प्लेट लटकी हुई है। वह अपना नाम टी0आर0 गुप्ता ही बताते हैं। कोई पूरा नाम ले तो बुरा मानते हैं। वैसे तो उनका पैतृक निवास शहर से बाइस किमी दूर एक गाँव में है, पर वह ख़ुद को इसी शहर का बताते हैं; और समझते भी हैं। उनका एक ही लड़का है, जो पिछले सात सालों से इलाहाबाद रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है।
उनके आगे गली के मोड़ पर पहला मकान कर्तार सिंह जी का है। 1984 में वह दिल्ली में अपना भरा-पूरा कारोबार छोड़कर यहाँ आए थे। दिल्ली में उनका बहुत बड़ा मकान था। लेकिन एक दुर्घटना में सब कुछ जलकर राख हो गया। वह रातों-रात छिपते-छिपाते परिवार लेकर भाग आए थे। उस समय उनके हाथ ख़ाली थे। तन पर कपड़ों के सिवा कुछ नहीं था। पर मेहनतकश इंसान चाहे तो रेत को भी सोने में बदल दे। शुरूआत में उन्होंने एक छोटा-सा मोटर-वर्कशाप खोला था, जो अब बड़ी-सी ट्रैक्टर-एजेंसी में बदल चुका है।
उनके सामने मौलाना रहमत अली का मकान है। मौलाना साहब धीर-गंभीर स्वभाव के, किंतु हाजि़र-जवाब आदमी हैं। सिर पर टोपी, आँखों पर चश्मा, मेहंदी लगी दाढ़ी और काली शेरवानी उन पर ख़ूब जँचती है। वह इस्लामिया इंटर कालेज के प्रिंसिपल हैं। उनके पास आसमानी रंग का एक पुराना स्कूटर है, उसी से कॉलेज आते-जाते हैं।
मौलाना साहब के बगल में घोष बाबू का घर है। उनका पूरा नाम सुरेंद्र नाथ घोष है, पर यह नाम बहुत कम लोग जानते हैं। सब उन्हें घोष बाबू ही कहकर बुलाते हैं। वह बंगाली हैं। यहाँ रेलवे में वह सेक्शन-इंजीनियर हैं। शुरू-शुरू में वह ट्रांसफर कराने को लेकर बहुत परेशान रहे और अधिकारियों के आगे-पीछे भागते रहे। पर अब कई सालों से ट्रांसफर रोकने के चक्कर में अपना प्रमोशन टालते आ रहे हैं। यहाँ की मिट्टी में वह पूरी तरह रच-बस गए हैं। बड़े हँसमुख आदमी हैं। साहित्य से उन्हें गहरा लगाव है। उनके मुँह से अक्सर रवींद्रनाथ के गीतों की पंक्तियाँ सुनी जा सकती हैं-
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे,
तबे एक्ला चलो रे!
घोष बाबू के सामने और कर्तार सिंह के मकान से सटा गुल मोहम्मद का घर है। वह कश्मीरी हैं। शुरू में वह यहाँ शाल-दुशाले बेचने आया करते थे। अब बीच शहर में उनकी कपड़ों की एक बड़ी-सी दूकान है।
मुहल्ले के बीचों-बीच बने पार्क के उस पार के0वी0एस0 पुंतुलु का मकान है। वह तमिलनाडु से आए हैं। यहाँ वह एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के ब्रांच-मैनेजर हैं। उन्हें हिन्दी कम आती है, इसलिए वह लोगों में घुलते-मिलते कम हैं।
उनके आगे पटेल बाबू का मकान है। वह ठेकेदारी का काम करते हैं।
उनके आगे देशमुख गायकवाड़, दीपू मोबले, हितेश घिल्डियाल, माइकेल विंस्टन, शेर सिंह चौहान और तमाम लोगों के घर हैं।
आइए, अब चलते हैं हिलमिल की दुनिया में।
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